पंडित दीनदयाल उपाध्यायः एकात्म मानववाद के प्रणेता भारत वर्ष में जितने महापुरूषों ने जन्म लिया उनमें एक पंडित दीनदयाल उपाध्याय। पंडित दीनदयाल उपाध्याय की गणना भारतीय महापुरूषों में इसलिये नहीं होती है कि वे किसी विचारधारा के थे बल्कि उन्होंने किसी विचारधारा या दलगत राजनीति से परे रहकर राष्ट्र को सर्वोपरि माना। राजनीति में उच्च से उच्चतर पद पाने के अनेक अवसर उनके समक्ष थे लेकिन उन्होंने हमेशा अपने को एक राष्ट्रसेवक के रूप में ही स्थापित किया। उन्होंने भारत के लिये चिंता की और कहा कि भारत की सांस्कृतिक विविधता ही उसकी असली ताकत है और इसी के बूते पर वह एक दिन विश्व मंच पर अगुवा राष्ट्र बन सकेगा। दशकों पहले उनके द्वारा स्थापित यह विचार आज मूर्तरूप ले रहा है। भारत की सांस्कृतिक विरासत पूरी दुनिया को प्रकाशमान कर रही है और शायद वह दिन दूर नहीं जब भारत विश्व मंच पर पूरी दुनिया को राह दिखाने वाला होगा। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का बाल्यकाल बेहद कष्टों में गुजरा। बहुत छोटी सी उम्र में पिता का साया सिर से उठ गया था। अपने प्रयासों से उन्होंने शिक्षा-दीक्षा हासिल की। बाद के समय में भारतीय विचारों से ओतप्रेत नेताओं का साथ मिलायहीं से उनके जीवन में बदलाव आया लेकिन जो कष्ट उन्होंने बचपन में उठाये थे, उन कष्टों के चलते वे पूरी जिंदगी सादगी से जीते रहे। विद्यार्थियों के प्रति उनका विशेष अनुराग था। वे चाहते थे कि समाज में शिक्षा का अधिकाधिक प्रसार हो ताकि लोग अधिकारों के साथ कर्तव्यों के प्रति जागरूक हो सकें। उन्हें इस बात का रंज रहता था कि समाज में लोग अधिकारों के प्रति तो चौंकन्ने हैं लेकिन कर्तव्य पूर्ति की भावना नगण्य हैं। उनका मानना था कि कर्तव्यपूर्ति के साथ ही अधिकार स्वयं ही मिल जाता है।
एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि भारतवर्ष विश्व में सर्वप्रथम रहेगा तो अपनी सांस्कृतिक संस्कारों के कारण। उनके द्वारा स्थापित एकात्म मानववाद की परिभाषा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ज्यादा सामयिक है। उन्होंने कहा था कि मनुष्य का शरीर,मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है। जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है , बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटे को निकालने की चेष्टा करता है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सामान्यतः मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारें की चिंता करता है। मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी। उन्होंने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर जोर दिया उन्होनें कहा कि संस्कृति-प्रधान जीवन की यह विशेषता है कि इसमें जीवन के मौलिक तत्वों पर तो जोर दिया जाता है पर शेष बाह्य बातों के संबंध में प्रत्येक को स्वतंत्रता रहती है। इसके अनुसार व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रत्येक क्षेत्र में विकास होता है। संस्कृति किसी काल विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के बन्धन से जकड़ी हुई नहीं है, अपितु यह तो स्वतंत्र एवं विकासशील जीवन की मौलिक प्रवृत्ति है। इस संस्कृति को ही हमारे देश में धर्म कहा गया है। जब हम कहतें है कि भारतवर्ष धर्म-प्रधान देश है तो इसका अर्थ मजहब, मत या रिलीजन नहीं, अपितु यह संस्कृति ही है। उनका मानना था कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से नदे कर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देना होगा। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी। समाज में जो लोग धर्म को बेहद संकुचित दृष्टि से दे ते और समझते हैं तथा उसी के अनुकूल व्यवहार करते हैं, उनके लिये पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि को समझना और भी जरूरी हो जाता है। वे कहते हैं कि विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं,राजनीति अथवा अर्थनीति की नहीं। उसमें तो शायद हमको उनसे ही उल्टे कुछ सीखना पड़े।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की अध्ययन-अध्ययपन में रूचि थी। वे श्रेष्ठ साहित्य का निरंतर अध्ययन करते रहे हैं। उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। केवल एक बैठक में ही उन्होंने 'चंद्रगुप्त नाटक लिख डाला था। वे मानते थे कि समाज तक सूचना पहुंचाने और उन्हें जागरूक बनाने के लिये पत्रकारिता से अलग और श्रेष्ठ माध्यम कुछ भी नहीं है। इसी सोच के साथ उन्होंने लखनऊ में राष्ट्र धर्म प्रकाशन नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका राष्ट्र धर्म शुरू की। बाद में उन्होंने 'पांचजन्य' (साप्ताहिक) तथा 'स्वदेश' (दैनिक) की शुरुआत की। पंडित उपाध्याय बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। इस महान व्यक्तित्व में कुशल अर्थचिन्तक, संगठनशास्त्री, शिक्षाविद्, राजनीतिज्ञ, वक्ता, लेखक व पत्रकार आदि जैसी प्रतिभाएं छुपी थीं। पं. दीनदयाल उपाध्याय महान चिंतक और संगठक थे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जन्मदिवस पर हम उनका स्मरण तो करते हैं बल्कि आज जरूरत है कि हम उनके बताये रास्ते पर चलें और भारत की सांस्कृतिक विविधता को विस्तार देकर एक नये भारत का निर्माण करें। 52 वर्ष की उम्र में पं दीनदयाल चले गये, पर अपने पीछे इतना कुछ छोड़ गये कि इस देश के राष्ट्रवादी उनके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकेंगे। जिस संगठन के पौधे को उन्होंने सींचा, वह आज भाजपा के रूप में हमारे सामने है। लेकिन, जो विचार उन्होंने दिये, वे पूरे देश के हैं। उनकी विचारधारा का मुख्य सोपान था उनका दिया 'एकात्म मानव-दर्शन' का सिद्धांत, जिसे आज भाजपा अपनी विचारधारा का आधार कहती है। क्या है यह एकात्म मानव-दर्शन? मूलतः यह भारतीय संस्कृति, विचार और दर्शन का निचोड़ है। जिस समय पूरा विश्व पूंजीवाद और साम्यवाद की अच्छाई-बुराई की बहस में उलझा था, पं दीनदयाल ने हस्तक्षेप करते हुए इन दो चरम विचारधाराओं से इतर एकात्म मानववाद की सम्यक अवधारणा दी। पूंजीवाद ने मानव को एक आर्थिक इकाई माना और उसके समाज से संबंधों को एक अनुबंध से ज्यादा कुछ नहीं समझा, साम्यवाद ने व्यक्ति को मात्रा एक राजनीतिक और कार्मिक इकाई माना। साम्यवाद के प्रवर्तक मार्क्स ने मानव-समाज को एक विखंडित आपसी संबंध-विहीन भीड़ की तरह देखा, जिसमें एक वर्ग अपना आधिपत्य जमाने के लिए स्वार्थपूर्ण नियम और प्रथाओं को लागू करता है। समाजवाद में भी व्यक्ति को एकांगी माना गया। मूलतः पश्चिम की सभी विचार धाराएं संकेंद्रित (कन्सेंट्रिक) हैं। हालांकि, व्यक्ति उन सबके मूल में है, लेकिन उससे कुछ परे हट कर परिवार, समुदाय और राज्य हैं, जो पश्चिमी विचारकों के अनुसार, एक-दूसरे से अलग हैं। इनसे परे, एकात्म मानववाद में व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र और फिर मानवता और चराचर सृष्टि का विचार किया गया है। 'एकात्म मानववाद' इन सब इकाइयों में अंतर्निहित, परस्पर-पूरक संबंध देखता है। भारतीय चिंतन जिस तरह से सृष्टि और समष्टि को एक समग्र रूप में देखता है, वैसे ही पं दीनदयाल ने मानव, समाज और प्रकृति व उसके संबंध को समग्र रूप में देता।
मनुष्य को 'एकात्म मानव-दर्शन' में तन-मन-बुद्धि और आत्मा का सम्मिलित स्वरूप माना गया। मानव की यह समग्रता ही उसे समाज के लिए उपयुक्त और उपादेय बनाती है। भारतीय चिंतन द्वारा प्रतिपादित धर्म, अर्थ, काम के प्रतीकों के रूप में मानव आत्मा को मोक्ष की ओर प्रवृत्त करने वाला विचार ही 'एकात्म मानववाद' में समाविष्ट है। समग्र मानव को निर्मित करने वाले इन चार तत्वों में एकात्मता अपेक्षित है, क्योंकि यही एकात्मता मानव को कर्मठता की ओर प्रेरित कर उद्यमी बना सकती है, जिससे समाज का हित-संवर्धन संभव है। ऐसा नहीं कि पं. दीनदयाल का 'एकात्म मानववाद' महज एक वैचारिक अनुष्ठान था। इसमें राजनीति, समाजनीति, अर्थव्यवस्था, उद्योग, उत्पादन, शिक्षा, लोक-नीति आदि पर व्यापक और व्यावहारिक नीति-निर्देश शामिल थे, जिन्हें आज केंद्र में शासित भाजपा सरकार अपना मार्ग-दर्शक सिद्धांत मानती है। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा पेश की गयीं ज्यादातर योजनाएं- दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण-कौशल योजना, स्टार्ट-अप व स्टैंड-अप इंडिया, मुद्रा बैंक योजना, दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना, सांसद आदर्श ग्राम योजना, मेक-इन-इंडिया आदि एकात्म मानववाद के सिद्धांतों से प्रेरित हैं। 'सबका साथ, सबका विकास' जैसा नारा भी उन्हीं की अंत्योदय' (समाज के अंतिम व्यक्ति का उत्थान) की अवधरणा पर आधारित है। पं दीनदयाल एक युग-द्रष्टा थे। आजादी के बाद जब उन्होंने भारत के विकास के लिए ग्रामीण विकास और लघु-उद्योग को बढ़ावा देने की बात की, तो किसी ने ध्यान नहीं दिया। 1950 के दशक में जब बड़े-बड़े सार्वजनिक निर्गमों की स्थापना सोवियत रूस की नकल पर 'महालनोबिस' मॉडल पर हो रही थी, उन्होंने इसका विरोध किया था। उनके विरोध का आधार था भारत के संदर्भ में पश्चिम की अंधी नकल। वे बड़े उद्योगों के विरोधी नहीं थे, परंतु वे भारत की तत्कालीन परिस्थितियों के आधार पर लघु उद्योगों को बढ़ावा देना चाहते थे, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुधरे। वे मानते थे कि देश की औद्योगीकरण का आधार उसकी परिस्थितियां व जरूरतें हों, न कि औरों की नकल। आज लगभग 60 वर्ष बाद उनकी बात अक्षरशः सत्य प्रतीत हो रही है। हमारे गांव और गरीबी जहाँ थी, कमोबेश अभी भी वहीं पर है, जबकि ज्यादातर बड़े सार्वजानिक उद्गम सफेद हाथी साबित हुए हैं। वहीं आज देश लघु और मझोले उद्योगों की महत्ता को समझ रहा है। आज हमारे कुल औद्योगिक उत्पाद का 40 प्रतिशत और निर्यात का 45 प्रतिशत इन छोटे उद्योगों से ही आता है। काश हमारे नीति-नियंताओं ने पं दीनदयाल उपाध्याय जी की बात तब सुनी होती, तो आज भारत का आर्थिक और औद्योगिक परिदृश्य ही कुछ और होताअब समय आ गया है कि पूरा देश इस पुरोध को जाने, समझे और उनके दिये चिंतन पर व्यवहार करे। पं दीनदयाल सिर्फ एक दल के नहीं हैं, वे पूरे देश के हैं। हम सभी के हैं।