कण-कण में समाई भगवान की सत्ता-डॉ. श्रीप्रकाश

कण-कण में समाई भगवान की सत्ता 'अहं ब्रह्मास्मि' मैं ब्रह्म हूँ। इस अनुभूति में ईश्वर से एकात्मकता की प्रार्थना की गई है, जो मन और बुद्धि से परे अगम, अगोचर है। यह मन के विचार तथा बुद्धि की कल्पनाओं की अवधारणा नहीं बल्कि अनुभूति का विषय है। यह साधनामय जीवन का अनुभव है, जो सृष्टि के कण-कण में, पौधों एवं प्राणियों में लहराता उफनता दृष्टिगोचर होता है। आवश्कता है उस दृष्टि की, जो जगत् में इसकी लीला को देख सके तथा अपने अंतर में विद्यमान उस परम पुरुष परमात्मा को झाँक सके। समस्त जप, तप, साधना, स्वाध्याय, सेवा का मूल यही है कि स्वयं को परिष्कृत एवं परिमार्जित करें तथा उसके दिव्य स्वरूप का अनुभव प्राप्तकरें। परमात्मा सर्वव्यापी है। सृष्टि का कोई कण उसकी चैतन्यचेतना से वंचित नहीं है। अणु-परमाणुओं में जो गतिविधियाँ संपन्न हो रही हैं, कण कण में जो ज्ञान की परम एवं चरम अनुभूति भरी हुई है, वह परमात्मा का ही दिव्य स्वरूप है। अगर ऐसा नहीं होता, तो प्रह्लाद को बचाने के लिए भगवान नृसिंह रूप धारण कर एक बेजान खंभे से कैसे अवतरित होते? हवा, पानी, मिट्टीआदि पंचतत्व सब उसी के विभिन्न स्वरूप हैं, इसलिए तो द्रोपदी की लाज बचाने के लिए भगवान कृष्ण शन्य से प्रकट हुए और उसके वस्त्र को इतना लंबा कर दिया कि वह किसी भी तरह समाप्त नहीं हो सका। गजराज की आर्त पुकार से सुदर्शन चक्र का अविर्भाव यही कहानीकहता है कि परमात्मा सर्वव्यापी है। वह कभी भी और किसी में भी प्रकट हो सकता है।


सबमें व्याप्त वह ईश्वर है। वह परम सद्वस्तु भिन्न भिन्न नहीं हो सकती। वह अपने सभी नाम, रूप, गुणों में एक ही है। अतः वैदिक ज्ञान की भाव भूमि में उसे एक सद विप्राः बहुधा वदंति के रूप में अलंकृत किया जाता है। इस सत्य का वैदिक ऋषि उद्घोष करते हैं वहीं इंद्र है, वही मित्र है, वही वरुण है, अग्नि वही है, दिव्य, सुपर्ण, गरुत्मान, यम भी वही है आर मातारिश्वा के रूप में एक वही जाना जाता है। अनंत रूपों, गुणों वाला वह ईश्वर अपने अंतर में ही विद्यमान है। जो इसकी झलक झाँकी पा लेता है, वही अनंत ऐश्वर्य एवं वैभवरूपी ब्रह्मांड को जान समझ लेता है। वेद ने इसी ऐश्वर्य के प्रतीक प्रतिनिधि परमात्मा को जाना है। वैदिक ऋषि इस ऐश्वर्य के प्रतीक प्रतिनिधि परमात्मा की परमेश्वरी सत्ता को अपनी हृदय गुहा में अवस्थित मानता है। इसे पाने के लिए मंगल आदि ग्रहों पर कहीं यान भेजने की आवश्यकता नहीं, बल्कि पुरातत्ववेत्ताओं एवं भूगर्भशास्त्रियों के समान अपने अंदर ही उत्खनन एवं गहरी खुदाई करने की जरूरत है। इसलिए कहा जाता है कि खुदा बाहरी खोज से नहीं वरन् अपने अतंर की खुदाई से ही प्राप्त किया जा सकता है। अपना अंतर प्रदेश काम, क्रोध, मोह की मोटी विषाक्त एवं मलिन परतों से आवृत्त है। यहाँ पर कामना का विप्लवी ज्वार उठता है और कामनाएँ अनंत हैं, जो कभी पूरी नहीं होती। एक पूरी होने से पहले ही घात लगाए बैठी अनेक कामनाएँ उठ खड़ी होती है। इसमें बाधा और व्यवधान आने पर जहरीले सर्प के समान फुफकारता क्रोध उठ खड़ा होता है।



इसकी लपलपाती लपटें इतनी भीषण होती हैं कि सभी को भस्मीभूत कर देना चाहती है। यह स्वयं को भी नहीं छोड़ता। समस्त मनोविकार यहीं से उद्भूत होते हैं, यही इनकी जड़ एवं मूल कारण है। इसी कारण परमात्मा का दिव्य धाम मनुष्य जीवन शांति एवं प्रेम के पावन गुणों से वंचित रहता है और इसके बदले लोभ का गहरा दलदल पसरा रहता है। यह तीव्र दुर्गधयुक्त होता है और मनुष्य अपना दैवी स्वरूप भूलकर इसी में लोटता रहता है। नश्वर वस्तु का लोभ, पद-प्रतिष्ठा का लोभ और न जाने कितने अंतहीन लोभ सताते रहते हैं। अपने ही मोहपाश में जकड़ा यह जीव इतने बंधनों में बँध जाता है कि इसे फिर से चौरासी लाखयोनि के चक्र में भ्रमण करना पड़ता है और वह इसी में बारंबार भटकता रहता है। अंतर प्रदेश की इसी कँटीली पथरीली बंजर भूमि की खुदाई जरूरी है। खुदाई एक अनिवार्य शर्त है। इस शर्त की पूर्ति के बिना वह नीलमणि ज्योति, वह परमेष्टी पुरुष भला कैसे दिखाई दे। हां, खुदाई एवं जुताई का तरीका भिन्न भिन्न हो सकता है। कोई विश्वामित्र एवं अगस्त्य के समान तप का हल चलाता है, कोई शंकराचार्य के सदृश ज्ञान का फावड़ा उठाता है, तो कोई स्वामी विवेकानन्द के समान नव्य वेदांत का कुदाल पकड़ता है। मीराबाई और चैतन्य के प्रबल प्रेम, ध्यानयोगी भगवान बुद्ध के निर्कप ध्यान, महायोगी श्री अरविंद एवं रमण महर्षि की प्रचंड योग साधना जैसे अस्त्र शस्त्रों एवं साधनोंके द्वारा भी अपने अंतर प्रदेश की परिष्कृत एवं परिमार्जित किया जाता है।


अंतः करण की पवित्रता दुर्गुणों को त्यागने से होती है। जब असह्यदुष्प्रवृत्तियों से हृदय का भार हलका हो जाता है, तो प्रभु का प्रकाश बिखरने लगता है। यह ज्योतिर्मय प्रकाश सद्गुणों के रूप में ज्योतित होता है। हृदय में सद्गुणों के बढ़ने से ही उसके दिव्यत्व का अनुभव होता है, क्योंकि ईश्वर सद्गुणों का समुच्चय है, श्रेष्ठ आदर्शो का समन्वय है। फिर हृदय गुहा में परमात्मा का सतत अनुभव होने लगता है।यह पवित्र स्थल प्रभु का डाक बँगला बन जाता है और तत्त्वमसि जो तुम हो, वह मैं हूं अहं ब्रह्मास्मि मैं ही ब्रह्म हूं का आलौकिक अनुभव होने लगता है। इस अव्यक्त अनुभव के होते ही, उसका दिव्य दर्शन करते ही दृष्टि व्यापक हो जाती है एवं देखने का नजरिया बदल जाता है। फिर सृष्टि के कण कण में जगत के घट घट में और समस्त जड़ चेतना में एकमात्र वही मचलता इठलाता दिखाई देता है और ब्रह्ममय सृष्टि का बोध हो जाता है। इसी विराट अनुभवबोध को प्राप्त कर ही उपनिषद् का ऋषि कह उठा था, यही ब्रह्म है। विशाल एवं अनंत ब्रह्मांड में बसी उसी की चेतना लहराती दृष्टिगोचर होती है।


किसी पीड़ित को पीड़ा से करहाते देख वह भी कराह उठता है। इसी भाव अनुभूति के कारण रामकृष्ण परमहंस ने एक बैलगाड़ी हाँकने वाले को जब बैल को कोड़े मारते देखा, तो पीड़ा दे कराह उठे। उनकी पीठ पर कोड़े के निशान पड़ गए और उनसे रक्त बह निकला। इन्होंने जनसेवा को शिव की अराधना मानकर कहा है- हर व्यक्ति, हर जीव परमात्मा है, ऐसा समझकर ही उसकी सेवा करो और जब वह सेवा हमारे जीवन में अराधना बन जाएगी, तो अहंकार विगलित हो जाएगा। अहंकार को गलाने के लिए निष्काम सेवा भाव एक मात्र उपाय है। अहंकार मुक्त पुरुष आकाश पुरुष बन जाता है और वह वैदिक ऋषि के समान अहं ब्रह्मास्मि तथा उपनिषदकार के सदृश विराट् ब्रह्म का साक्षात्कार करता है।